आज सुबह की बात है। घर से निकले ऑफिस की तरफ। और जैसा की अक्सर होता है हमारी महानगरी मुम्बई में , आधे रास्ते में फँस गए ट्रैफिक में। वैसे तो यहां की बड़ी और चौड़ी सडकों को एक्सप्रेस-वे और फ्री-वे बोला जाता है, पर ऑफिस के समय ज्यादातर गाड़ियां रेंगती हुयी ही नज़र आती हैं। गाड़ी से बाहर झाँका तो नज़र पड़ी डिवाइडर पर। छोटे-छोटे पौधे लगे हुए थे। और फिर ध्यान गया उन पर खिले हुए फूलों पर। बस फिर कहीं दिमाग के कोने से निकल आयी वो कविता जो बचपन में पढ़ी थी - श्री माखनलाल चतुर्वेदी की रचना "पुष्प की अभिलाषा"
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गुंथा जाऊं,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर, हे हरी ,डाला जाऊं,
चाह नहीं देवों के शीष चढूं, भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली , उस पथ पर देना तुम फ़ेंक,
मातृभूमि पर शीष चढ़ाने, जिस पथ जाएँ वीर अनेक।
कई साल हो गए, इस कविता को पढ़े हुए। स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा था। मुझे याद है टीवी पर भी अक्सर आया करता था। और शायद इसी कारण दिमाग में अच्छे से बस गयी थी ये कविता। और आज सुबह जैसे ही सड़क के डिवाइडर पर खिले हुए फूलों पर नज़र गयी, सारे शब्द खुद-ब-खुद याद आ गए।
मनुष्य का जटिल दिमाग - कभी तो अभी पढ़ी हुयी चीज़ याद नहीं आती और कभी अकस्मात् सालों पुरानी भूली हुयी यादें प्रकट हो जाती हैं।
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